Wednesday 2 April 2014

मंत्र जाप से करें शिव को प्रसन्न

श्रावण मास में मंत्र जाप से भोले भंडारी की कृपा शीघ्र प्राप्त होती है, जिससे साधक अपनी कामना की पूर्ति करके जीवन में सफलता-सुख-शांति प्राप्त करता है। यहाँ कुछ दिए मंत्र हैं जिनका प्रतिदिन रुद्राक्ष की माला से जप करना चाहिए। 

जाप पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके करना चाहिए। जप के पूर्व शिवजी को बिल्वपत्र अर्पित करना या उनके ऊपर जलधारा लगाना चाहिए।
मंत्र जाप करके आप शिव कृपा को पात्र कर सकते हैं :
* ॐ नमः शिवाय। 

* प्रौं ह्रीं ठः। 

* ऊर्ध्व भू फट्। 

* इं क्षं मं औं अं। 

* नमो नीलकण्ठाय। 

* ॐ पार्वतीपतये नमः।

* ॐ ह्रीं ह्रौं नमः शिवाय। 

* ॐ नमो भगवते दक्षिणामूर्त्तये मह्यं मेधा प्रयच्छ स्वाहा।

शिवरात्रि की अन्य कथा

किसी गाँव में एक ब्राह्मण परिवार रहता था। ब्राह्मण का लड़का चंद्रसेन दुष्ट प्रवृत्ति का था। बड़ा होने पर भी उसकी इस नीच प्रवृत्ति में कोई अंतर नहीं आया, बल्कि उसमें दिनों-दिन बढ़ोतरी होती गई। वह बुरी संगत में पड़कर चोरी-चकारी तथा जुए आदि में उलझ गया।

चंद्रसेन की माँ बेटे की हरकतों से परिचित होते हुए भी अपने पति को कुछ नहीं बताती थी। वह उसके हर दोष को छिपा लिया करती थी। इसका प्रभाव यह पड़ा कि चंद्रसेन कुसंगति के गर्त में डूबता चला गया।

एक दिन ब्राह्मण अपने यजमान के यहाँ से पूजा कराके लौट रहा था तो अपने मार्ग में दो लड़कों को सोने की अँगूठी के लिए लड़ते पाया। एक कह रहा था कि यह अँगूठी चंद्रसेन से मैंने जीती है। दूसरे का तर्क यह था कि अँगूठी मैंने जीती है। यह सब देख-सुनकर ब्राह्मण बड़ा दुःखी हुआ। उसने दोनों लड़कों को समझा-बुझाकर अँगूठी ले ली।

घर आकर ब्राह्मण ने पत्नी से चंद्रसेन के बारे में पूछा। उत्तर में उसने कहा, 'यहीं तो खेल रहा था अभी?' जबकि हकीकत यह थी कि चंद्रसेन पिछले पाँच दिनों से घर नहीं आया था।

ब्राह्मण ऐसे घर में क्षणभर भी नहीं रहना चाहता था जहाँ जुआरी-चोर बेटा रह रहा हो तथा उसकी माँ अवगुणों पर हमेशा परदा डालती हो। अपने घर से कुछ चुराने के लिए चंद्रसेन जा ही रहा था कि दोस्तों ने सारी नाराजगी उस पर जाहिर कर दी। वह उल्टे पाँव भाग निकला। रास्ते में एक मंदिर के पास कीर्तन हो रहा था।

भूखा चंद्रसेन कीर्तन में बैठ गया, उस दिन शिवरात्रि थी। भक्तों ने शंकर पर तरह-तरह का भोग चढ़ा रखा था। चंद्रसेन इसी भोग सामग्री को उड़ाने की ताक में लग गया। कीर्तन करते-करते भक्तगण धीरे-धीरे सो गए। तब चंद्रसेन ने मौके का लाभ उठाकर भोग की चोरी की और भाग निकला।

मंदिर से बाहर निकलते ही किसी भक्त की आँख खुल गई। उसने चंद्रसेन को भागते देख 'चोर-चोर' कहकर शोर मचा दिया। लोगों ने उसका पीछा किया। भूखा चंद्रसेन भाग न सका और डंडे के प्रहार से चोट खाकर गिरते ही उसकी मृत्यु हो गई।

अब मृत चंद्रसेन को लेने शंकरजी के गण तथा यमदूत एक साथ वहाँ आ पहुँचे। यमदूतों के अनुसार चंद्रसेन नरक का अधिकारी था, क्योंकि उसने आज तक पाप ही पाप किए थे, लेकिन शिव के गणों के अनुसार चंद्रसेन स्वर्ग का अधिकारी था, क्योंकि वह शिवभक्त था। चंद्रसेन ने पिछले पाँच दिनों से भूखे रहकर व्रत तथा शिव का जागरण किया था।

चंद्रसेन ने शिव पर चढ़ा हुआ नैवेद्य नहीं खाया था। वह तो नैवेद्य खाने से पूर्व ही प्राण त्याग चुका था, इसलिए भी शिव के गणों के अनुसार वह स्वर्ग का अधिकारी था। ऐसा भगवान शंकर के अनुग्रह से ही हुआ था। अतः यमदूतों को खाली ही लौटना पड़ा। इस प्रकार चंद्रसेन को भगवान शिव के सत्संग मात्र से ही मोक्ष मिल गया।

शिव पूजन सामग्री

धूप बत्ती (अगरबत्ती)
कपूर
केसर
चंदन
यज्ञोपवीत 5
कुंकु
चावल
अबीर
गुलाल, अभ्रक
हल्दी
आभूषण
नाड़ा
रुई
रोली, सिंदूर
सुपारी, पान के पत्ते
पुष्पमाला, कमलगट्टे
धनिया खड़ा
सप्तमृत्तिका
सप्तधान्य
कुशा व दूर्वा
पंच मेवा
गंगाजल
शहद (मधु)
शकर
घृत (शुद्ध घी)
दही
दूध
ऋतुफल
नैवेद्य या मिष्ठान्न
(पेड़ा, मालपुए इत्यादि)
इलायची (छोटी)
लौंग
मौली
इत्र की शीशी
सिंहासन (चौकी, आसन)
पंच पल्लव
(बड़, गूलर, पीपल, आम और पाकर के पत्ते)
बिल्वपत्र
शमीपत्र
औषधि (जटामॉसी, शिलाजीत आदि)
शिवलिंग
शुद्ध मिट्टी
गणेशजी की मूर्ति
शिवजी को अर्पित करने हेतु वस्त्र
गणेशजी को अर्पित करने हेतु वस्त्र
अम्बिका को अर्पित करने हेतु वस्त्र
जल कलश (तांबे या मिट्टी का)
सफेद कपड़ा (आधा मीटर)
लाल कपड़ा (आधा मीटर)
पंच रत्न (सामर्थ्य अनुसार)
दीपक
बड़े दीपक के लिए तेल
ताम्बूल (लौंग लगा पान का बीड़ा)
श्रीफल (नारियल)
धान्य (चावल, गेहूँ)
पुष्प (गुलाब एवं लाल कमल)
एक नई थैली में हल्दी की गाँठ,
खड़ा धनिया व दूर्वा आदि
अर्घ्य पात्र सहित अन्य सभी पात्र

शिव विवाह

सती के विरह में शंकरजी की दयनीय दशा हो गई। वे हर पल सती का ही ध्यान करते रहते और उन्हीं की चर्चा में व्यस्त रहते। उधर सती ने भी शरीर का त्याग करते समय संकल्प किया था कि मैं राजा हिमालय के यहाँ जन्म लेकर शंकरजी की अर्द्धांगिनी बनूँ।

अब जगदम्बा का संकल्प व्यर्थ होने से तो रहा। वे उचित समय पर राजा हिमालय की पत्नी मेनका के गर्भ में प्रविष्ट होकर उनकी कोख में से प्रकट हुईं। पर्वतराज की पुत्री होने के कारण वे 'पार्वती' कहलाईं। जब पार्वती बड़ी होकर सयानी हुईं तो उनके माता-पिता को अच्छा वर तलाश करने की चिंता सताने लगी।

एक दिन अचानक देवर्षि नारद राजा हिमालय के महल में आ पहुँचे और पार्वती को देख कहने लगे कि इसका विवाह शंकरजी के साथ होना चाहिए और वे ही सभी दृष्टि से इसके योग्य हैं।

पार्वती के माता-पिता के आनंद का यह जानकर ठिकाना न रहा कि साक्षात जगन्माता सती ही उनके यहाँ प्रकट हुई हैं। वे मन ही मन भाग्य को सराहने लगे।

एक दिन अचानक भगवान शंकर सती के विरह में घूमते-घूमते उसी प्रदेश में जा पहुँचे और पास ही के स्थान गंगावतरण में तपस्या करने लगे। जब हिमालय को इसकी जानकारी मिली तो वे पार्वती को लेकर शिवजी के पास गए।

वहाँ राजा ने शिवजी से विनम्रतापूर्वक अपनी पुत्री को सेवा में ग्रहण करने की प्रार्थना की। शिवजी ने पहले तो आनाकानी की, किंतु पार्वती की भक्ति देखकर वे उनका आग्रह न टाल न सके।

शिवजी से अनुमति मिलने के बाद तो पार्वती प्रतिदिन अपनी सखियों को साथ ले उनकी सेवा करने लगीं। पार्वती हमेशा इस बात का सदा ध्यान रखती थीं कि शिवजी को किसी भी प्रकार का कष्ट न हो।

वे हमेशा उनके चरण धोकर चरणोदक ग्रहण करतीं और षोडशोपचार से पूजा करतीं। इसी तरह पार्वती को भगवान शंकर की सेवा करते दीर्घ समय व्यतीत हो गया। किंतु पार्वती जैसी सुंदर बाला से इस प्रकार एकांत में सेवा लेते रहने पर भी शंकर के मन में कभी विकार नहीं हुआ।

वे सदा अपनी समाधि में ही निश्चल रहते। उधर देवताओं को तारक नाम का असुर बड़ा त्रास देने लगा। यह जानकर कि शिव के पुत्र से ही तारक की मृत्यु हो सकती है, सभी देवता शिव-पार्वती का विवाह कराने की चेष्टा करने लगे।

उन्होंने शिव को पार्वती के प्रति अनुरक्त करने के लिए कामदेव को उनके पास भेजा, किंतु पुष्पायुध का पुष्पबाण भी शंकर के मन को विक्षुब्ध न कर सका। उलटा कामदेव उनकी क्रोधाग्नि से भस्म हो गए।

इसके बाद शंकर भी वहाँ अधिक रहना अपनी तपश्चर्या के लिए अंतरायरूप समझ कैलास की ओर चल दिए। पार्वती को शंकर की सेवा से वंचित होने का बड़ा दुःख हुआ, किंतु उन्होंने निराश न होकर अब की बार तप द्वारा शंकर को संतुष्ट करने की मन में ठानी।

उनकी माता ने उन्हें सुकुमार एवं तप के अयोग्य समझकर बहुत मना किया, इसीलिए उनका 'उमा'- उ+मा (तप न करो)- नाम प्रसिद्ध हुआ। किंतु पार्वती पर इसका असर न हुआ। अपने संकल्प से वे तनिक भी विचलित नहीं हुईं। वे भी घर से निकल उसी शिखर पर तपस्या करने लगीं, जहाँ शिवजी ने तपस्या की थी।

तभी से लोग उस शिखर को 'गौरी-शिखर' कहने लगे। वहाँ उन्होंने पहले वर्ष फलाहार से जीवन व्यतीत किया, दूसरे वर्ष वे पर्ण (वृक्षों के पत्ते) खाकर रहने लगीं और फिर तो उन्होंने पर्ण का भी त्याग कर दिया और इसीलिए वे 'अपर्णा' कहलाईं।

इस प्रकार पार्वती ने तीन हजार वर्ष तक तपस्या की। उनकी कठोर तपस्या को देख ऋषि-मुनि भी दंग रह गए।

अंत में भगवान आशुतोष का आसन हिला। उन्होंने पार्वती की परीक्षा के लिए पहले सप्तर्षियों को भेजा और पीछे स्वयं वटुवेश धारण कर पार्वती की परीक्षा के निमित्त प्रस्थान किया। 
जब इन्होंने सब प्रकार से जाँच-परखकर देख लिया कि पार्वती की उनमें अविचल निष्ठा है, तब तो वे अपने को अधिक देर तक न छिपा सके। वे तुरंत अपने असली रूप में पार्वती के सामने प्रकट हो गए और उन्हें पाणिग्रहण का वरदान देकर अंतर्धान हो गए। 

पार्वती अपने तप को पूर्ण होते देख घर लौट आईं और अपने माता-पिता से सारा वृत्तांत कह सुनाया। अपनी दुलारी पुत्री की कठोर तपस्या को फलीभूत होता देखकर माता-पिता के आनंद का ठिकाना नहीं रहा। 

उधर शंकरजी ने सप्तर्षियों को विवाह का प्रस्ताव लेकर हिमालय के पास भेजा और इस प्रकार विवाह की शुभ तिथि निश्चित हुई।

सप्तर्षियों द्वारा विवाह की तिथि निश्चित कर दिए जाने के बाद भगवान्‌ शंकरजी ने नारदजी द्वारा सारे देवताओं को विवाह में सम्मिलित होने के लिए आदरपूर्वक निमंत्रित किया और अपने गणों को बारात की तैयारी करने का आदेश दिया। 

उनके इस आदेश से अत्यंत प्रसन्न होकर गणेश्वर शंखकर्ण, केकराक्ष, विकृत, विशाख, विकृतानन, दुन्दुभ, कपाल, कुंडक, काकपादोदर, मधुपिंग, प्रमथ, वीरभद्र आदि गणों के अध्यक्ष अपने-अपने गणों को साथ लेकर चल पड़े। 

नंदी, क्षेत्रपाल, भैरव आदि गणराज भी कोटि-कोटि गणों के साथ निकल पड़े। ये सभी तीन नेत्रों वाले थे। सबके मस्तक पर चंद्रमा और गले में नीले चिन्ह थे। सभी ने रुद्राक्ष के आभूषण पहन रखे थे। सभी के शरीर पर उत्तम भस्म पुती हुई थी। 

इन गणों के साथ शंकरजी के भूतों, प्रेतों, पिशाचों की सेना भी आकर सम्मिलित हो गई। इनमें डाकनी, शाकिनी, यातुधान, वेताल, ब्रह्मराक्षस आदि भी शामिल थे। इन सभी के रूप-रंग, आकार-प्रकार, चेष्टाएँ, वेश-भूषा, हाव-भाव आदि सभी कुछ अत्यंत विचित्र थे। 

किसी के मुख ही नहीं था और किसी के बहुत से मुख थे। कोई बिना हाथ-पैर के ही था तो कोई बहुत से हाथ-पैरों वाला था। किसी के बहुत सी आँखें थीं और किसी के पास एक भी आँख नहीं थी। किसी का मुख गधे की तरह, किसी का सियार की तरह, किसी का कुत्ते की तरह था। 

उन सबने अपने अंगों में ताजा खून लगा रखा था। कोई अत्यंत पवित्र और कोई अत्यंत वीभत्स तथा अपवित्र गणवेश धारण किए हुए था। उनके आभूषण बड़े ही डरावने थे उन्होंने हाथ में नर-कपाल ले रखा था। 

वे सबके सब अपनी तरंग में मस्त होकर नाचते-गाते और मौज उड़ाते हुए महादेव शंकरजी के चारों ओर एकत्रित हो गए।

चंडीदेवी बड़ी प्रसन्नता के साथ उत्सव मनाती हुई भगवान्‌ रुद्रदेव की बहन बनकर वहाँ आ पहुँचीं। उन्होंने सर्पों के आभूषण पहन रखे थे। वे प्रेत पर बैठकर अपने मस्तक पर सोने का कलश धारण किए हुए थीं। 
धीरे-धीरे वहाँ सारे देवता भी एकत्र हो गए। उस देवमंडली के बीच में भगवान श्री विष्णु गरुड़ पर विराजमान थे। पितामह ब्रह्माजी भी उनके पास में मूर्तिमान्‌ वेदों, शास्त्रों, पुराणों, आगमों, सनकाद महासिद्धों, प्रजापतियों, पुत्रों तथा कई परिजनों के साथ उपस्थित थे। 

देवराज इंद्र भी कई आभूषण पहन अपने ऐरावत गज पर बैठ वहाँ पहुँचे थे। सभी प्रमुख ऋषि भी वहाँ आ गए थे। तुम्बुरु, नारद, हाहा और हूहू आदि श्रेष्ठ गंधर्व तथा किन्नर भी शिवजी की बारात की शोभा बढ़ाने के लिए वहाँ पहुँच गए थे। इनके साथ ही सभी जगन्माताएँ, देवकन्याएँ, देवियाँ तथा पवित्र देवांगनाएँ भी वहाँ आ गई थीं।

इन सभी के वहाँ मिलने के बाद भगवान शंकरजी अपने स्फुटिक जैसे उज्ज्वल, सुंदर वृषभ पर सवार हुए। दूल्हे के वेश में शिवजी की शोभा निराली ही छटक रही थी। 

इस दिव्य और विचित्र बारात के प्रस्थान के समय डमरुओं की डम-डम, शंखों के गंभीर नाद, ऋषियों-महर्षियों के मंत्रोच्चार, यक्षों, किन्नरों, गन्धर्वों के सरस गायन और देवांगनाओं के मनमोहक नृत्य और मंगल गीतों की गूँज से तीनों लोक परिव्याप्त हो उठे।

उधर हिमालय ने विवाह के लिए बड़ी धूम-धाम से तैयारियाँ कीं और शुभ लग्न में शिवजी की बारात हिमालय के द्वार पर आ लगी। पहले तो शिवजी का विकट रूप तथा उनकी भूत-प्रेतों की सेना को देखकर मैना बहुत डर गईं और उन्हें अपनी कन्या का पाणिग्रहण कराने में आनाकानी करने लगीं। 

पीछे से जब उन्होंने शंकरजी का करोड़ों कामदेवों को लजाने वाला सोलह वर्ष की अवस्था का परम लावण्यमय रूप देखा तो वे देह-गेह की सुधि भूल गईं और शंकर पर अपनी कन्या के साथ ही साथ अपनी आत्मा को भी न्योछावर कर दिया। 
हर-गौरी का विवाह आनंदपूर्वक संपन्न हुआ। हिमाचल ने कन्यादान दिया। विष्णु भगवान तथा अन्यान्य देव और देव-रमणियों ने नाना प्रकार के उपहार भेंट किए। ब्रह्माजी ने वेदोक्त रीति से विवाह करवाया। सब लोग अमित उछाह से भरे अपने-अपने स्थानों को लौट गए।

सोमवार व्रत की आरती

आरती करत जनक कर जोरे।
बड़े भाग्य रामजी घर आए मोरे॥

जीत स्वयंवर धनुष चढ़ाए।
सब भूपन के गर्व मिटाए॥

तोरि पिनाक किए दुइ खंडा।
रघुकुल हर्ष रावण मन शंका॥

आई सिय लिए संग सहेली।
हरषि निरख वरमाला मेली॥

गज मोतियन के चौक पुराए।
कनक कलश भरि मंगल गाए॥

कंचन थार कपूर की बाती।
सुर नर मुनि जन आए बराती॥

फिरत भांवरी बाजा बाजे।
सिया सहित रघुबीर विराजे॥

धनि-धनि राम लखन दोउ भाई।
धनि दशरथ कौशल्या माई॥

राजा दशरथ जनक विदेही।
भरत शत्रुघन परम सनेही॥

मिथिलापुर में बजत बधाई।
दास मुरारी स्वामी आरती गाई॥

भगवान शंकर का रुद्र के रूप में अवतरण


शिवरात्रि का व्रत फाल्गुन कृष्ण त्रयोदषी को होता है। कुछ लोग चतुर्दशी के दिन भी इस व्रत को करते हैं। माना जाता है कि सृष्टि के प्रारंभ में इसी दिन मध्य रात्रि भगवान शंकर का ब्रह्मा से रुद्र के रूप में अवतरण हुआ था। प्रलय की बेला में इसी दिन प्रदोष के समय भगवान शिव तांडव करते हुए ब्रह्माण्ड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से समाप्त कर देते हैं, इसलिए इसे महाशिवरात्रि अथवा कालरात्रि कहा गया है।

तीनों भुवनों की अपार सुन्दरी तथा शीलवती गौरी को अर्धांगिनी बनाने वाले शिव प्रेतों व पिशाचों से घिरे रहते हैं। उनका रूप बड़ा अजीब है। शरीर पर मसानों की भस्म, गले में सर्पों का हार, कंठ में विष, जटाओं में जगत-तारिणी पावन गंगा तथा माथे में प्रलयंकारी ज्वाला है। बैल को वाहन के रूप में स्वीकार करने वाले शिव अमंगल रूप होने पर भी भक्तों का मंगल करते हैं और श्री सम्पत्ति प्रदान करते हैं।

काल के काल और देवों के देव महादेव के इस व्रत का विशेष महत्व है। इस व्रत को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्व, शूद्र, नर-नारी, बालक-वृद्ध हर कोई कर सकता है।

व्रत-पूजन कैसे करें
1. इस दिन प्रातःकाल स्नान-ध्यान से निवृत्त होकर अनशन व्रत रखना चाहिए।

2. पत्र-पुष्प तथा सुंदर वस्त्रों से मंडप तैयार करके सर्वतोभद्र की वेदी पर कलश की स्थापना के साथ-साथ गौरी-शंकर और नंदी की मूर्ति रखनी चाहिए।

3. यदि इस मूर्ति का नियोजन न हो सके तो शुद्ध मिट्टी से शिवलिंग बना लेना चाहिए।

4. कलश को जल से भरकर रोली, मौली, चावल, पान, सुपारी, लौंग, इलायची, चंदन, दूध, दही, घी, शहद, कमलगट्टा, धतूरा, बेलपत्र, कमौआ आदि का प्रसाद शिवजी को अर्पित करके पूजा करनी चाहिए। पूजन विधि विस्तृत में पृथक से दी गई है, उसे पूजन से पूर्व एक बार अवश्य पढ़ लें।

5. रात को जागरण करके शिव की स्तुति का पाठ करना चाहिए। इस अवसर पर शिव पुराण का पाठ मंगलकारी है। शिव आराधना स्तोत्रों का वाचन भी लाभकारी होता है।

6. इस जागरण में शिवजी की चार आरती का विधान जरूरी है।

7. शिवरात्रि की कथा कहें या सुनें

8. दूसरे दिन प्रातः जौ, तिल-खीर तथा बेलपत्रों का हवन करके ब्राह्मणों को भोजन कराकर व्रत का पारण करना चाहिए। इस विधि तथा स्वच्छ भाव से जो भी यह व्रत रखता है, भगवान शिव प्रसन्न होकर उसे अपार सुख-सम्पदा प्रदान करते हैं।

9. भगवान शंकर पर चढ़ाया गया नैवेद्य खाना निषिद्ध है। ऐसी मान्यता है कि जो इस नैवेध को खा लेता है, वह नरक के दुःखों का भोग करता है। इस कष्ट के निवारण के लिए शिव की मूर्ति के पास शालिग्राम की मूर्ति का रहना अनिवार्य है। यदि शिव की मूर्ति के पास शालिग्राम हों तो नैवेध खाने का कोई दोष नहीं होता।

शिव को प्रिय श्रावण मास

भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंग तीर्थ हैं। शिवपुराण में इन ज्योतिर्लिंग का उल्लेख है। इनके दर्शन मात्र से सभी तीर्थों का फल प्राप्त होता है। आकाश जिसका लिंग है, पृथ्वी उसकी पीठ है।

पद्म पुराण के पाताल खंड के अष्टम अध्याय में ज्योतिर्लिंगों के बारे में कहा गया है कि जो मनुष्य इन द्वादश ज्योतिर्लिंगों के दर्शन करता है, उनकी समस्त कामनाओं की इच्छा पूर्ति होती है। स्वर्ग और मोक्ष का वैभव जिनकी कृपा से प्राप्त होता है।

शिव के त्रिशूल की एक नोक पर काशी विश्वनाथ की नगरी का भार है। पुराणों में ऐसा वर्णित है कि प्रलय आने पर भी काशी को किसी प्रकार की क्षति नहीं होगी।

भारत में शिव संबंधी अनेक पर्व तथा उत्सव मनाए जाते हैं। उनमें श्रावण मास भी अपना विशेष महत्व रखता है। संपूर्ण महीने में चार सोमवार, एक प्रदोष तथा एक शिवरात्रि, ये योग एकसाथ श्रावण महीने में मिलते हैं। इसलिए श्रावण का महीना अधिक फल देने वाला होता है। इस मास के प्रत्येक सोमवार को शिवलिंग पर शिवामूठ च़ढ़ाई जाती है। वह क्रमशः इस प्रकार है :

प्रथम सोमवार को- कच्चे चावल एक मुट्ठी, दूसरे सोमवार को- सफेद तिल्ली एक मुट्ठी, तीसरे सोमवार को- ख़ड़े मूँग एक मुट्ठी, चौथे सोमवार को- जौ एक मुट्ठी और यदि पाँचवाँ सोमवार आए तो एक मुट्ठी सत्तू च़ढ़ाया जाता है।

महिलाएँ श्रावण मास में विशेष पूजा-अर्चना एवं व्रत अपने पति की लंबी आयु के लिए करती हैं। सभी व्रतों में सोलह सोमवार का व्रत श्रेष्ठ है। इस व्रत को वैशाख, श्रावण, कार्तिक और माघ मास में किसी भी सोमवार को प्रारंभ किया जा सकता है। इस व्रत की समाप्ति सत्रहवें सोमवार को सोलह दम्पति (जो़ड़ों) को भोजन एवं किसी वस्तु का दान देकर उद्यापन किया जाता है।

शिव की पूजा में बिल्वपत्र अधिक महत्व रखता है। शिव द्वारा विषपान करने के कारण शिव के मस्तक पर जल की धारा से जलाभिषेक शिव भक्तों द्वारा किया जाता है। शिव भोलेनाथ ने गंगा को शिरोधार्य किया है।

शिव का ग्यारहवाँ अवतार हनुमान के रूप में हुआ है। संपूर्ण श्रावणमास में शिव भक्तों द्वारा शिवपुराण, शिवलीलामृत, शिव कवच, शिव चालीसा, शिव पंचाक्षर मंत्र, शिव पंचाक्षर स्तोत्र, महामृत्युंजय मंत्र का पाठ एवं जाप किया जाता है। श्रावण मास में इसके करने से अधिक फल प्राप्त होता है।

नवग्रह पूजन विधि

भगवान शिव के पूजन के साथ नवग्रह पूजन का विशेष महत्व ग्रंथ-पुराणों में वर्णित है। नवग्रह-पूजन के लिए पहले ग्रहों का आह्वान करके उनकी स्थापना की जाती है। बाएँ हाथ में अक्षत लेकर निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुए दाएँ हाथ से अक्षत अर्पित करते हुए ग्रहों का आह्वान किया जाता है। 



नवग्रह पूजन विधि तालिका 

बुध
बृहस्पति
केतु




सूर्य : सबसे पहले सूर्य का आह्वान किया जाता है क्योंकि सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं। रोली से रंगे हुए लाल अक्षत और लाल रंग के पुष्प लेकर निम्न मंत्र से सूर्य का आह्वान करें -

ॐ आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च ।
हिरण्येन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्‌ ॥

जपा कुसमसंकाशं काश्यपेयं महाद्युतिम्‌ ।
तमोऽरिं सर्वपापघ्नं सूर्यमावाहयाम्यहम्‌ ॥

ॐ भूर्भुवः स्वः कलिंगदेशोद्भव कश्यपगोत्र रक्तवर्ण भो सूर्य! इहागच्छ, इहतिष्ठ 
ॐ सूर्याय नमः, श्री सूर्यमावाहयामि स्थापयामि च ।

  भगवान शिव के पूजन के साथ नवग्रह पूजन का विशेष महत्व ग्रंथ-पुराणों में वर्णित है। नवग्रह-पूजन के लिए पहले ग्रहों का आह्वान करके उनकी स्थापना की जाती है। बाएँ हाथ में अक्षत लेकर निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुए दाएँ हाथ से अक्षत अर्पित करें।      



चंद्र : श्वेत अक्षत और पुष्प बाएँ हाथ में लेकर दाएँ हाथ से अक्षत और पुष्प छोड़ते हुए निम्न मंत्र से चंद्र का आह्वान करें-

ॐ इमं देवा असनप्न(गुँ) सुवध्वं महते क्षत्राय
महते ज्येष्ठ्याय महते जानराज्यायेन्द्रस्येंद्रियाय ।

इमममुष्य पुत्रममुष्यै पुत्रमस्यै विश एष वोऽमी
राजा सोमोऽस्माकं ब्राह्मणाना(गुँ); राजा ॥

दधिशंखतुषाराभं क्षीरोदार्णवसम्भवम्‌ ।
ज्योत्स्नापतिं निशानाथं सोममावाहयाम्यहम ॥

ॐ भूर्भुवः स्वः यमुनातीरोद्धव आत्रेय गोत्र शुक्लवर्ण भो सोम! इहागच्छ, इहतिष्ठ 
ॐ सोमाय नमः, सोममावाहयामि, स्थापयामि च ।

नटेश्वर


कालिदास ने भी रघुवंश में लिखा है- 'जगतः पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ'। यहाँ पितरौ शब्द की व्याख्या में माता भी छिपी हुई है। 'माता च पिता च पितरौ'। स्त्रीत्व के गुण और पुरुत्व के गुण एक मानव में एकत्र होते हैं, वहीं मानव ज्ञान का परमोच्च रूप है। केवल नारी के गुण मुक्ति के लिए उपयोगी नहीं हैं। मुक्ति पाने के लिए नर और नारी के गुण इकट्ठे आने चाहिए। इसलिए द्वैत निर्माण होते ही भगवान में नारनारी दोनों के गुण एकत्र हुए। उमा-महेश्वर में पौरुष, कर्तव्य, ज्ञान और विवेक जैसे नर के गुण हैं, उसके साथ-साथ स्नेह, प्रेम, वात्सल्य जैसे नारी के गुण भी हैं, इसलिए वह पूर्ण जीवन है।

भगवान को द्विलिंगी प्रजा उत्पन्न करने का कोई कारण नहीं था। भगवान एकलिंगी प्रजा उत्पन्न कर सकते थे। प्राणिशास्त्र का अभ्यास करने से मालूम होगा कि बहुत-सी प्रजा एकलिंगी है, परन्तु भगवान की द्विलिंगी प्रजा विकसित है, इसलिए बाप भी चाहिए और माँ भी चाहिए। बालक को बाप के गुण मिलने चाहिए और माँ के गुण भी मिलने चाहिए, तभी वह विकसित जीव कहा जाता है। 

स्त्री को पुरुष और पुरुष को स्त्री बनना चाहिए, अर्थात्‌ पुरुष में स्त्री के और स्त्री में पुरुष के गुण आने चाहिए। इस तरह मिलकरही विकास होता है। हस्त्री के गुण पुरुष ले और पुरुष के गुण स्त्री ले, यही विकास है। इसीलिए हमें जन्म देने के लिए माँ और बाप दोनों की जरूरत पड़ी। स्त्री-पुरुष विवाह करने पर ही पूर्ण होते हैं, ऐसा हम कहते हैं।

पुरुष के विवेक, कर्त्तव्य, पौरुष, निर्भयता, ज्ञान- ये सभी गुण स्त्री में आने चाहिए और स्त्री के लज्जा, स्नेह, प्रेम, दया, माया, ममता, इत्यादि गुण पुरुष में आने चाहिए। स्त्री-पुरुष के गुणों के मिलने से ही उत्कृष्ट मानव का का सर्जन होता है। जब भगवान ने सृष्टि निर्माण की तब, भगवान के पास नर और नारी के गुण एक साथ थे। इसका अर्थ यही है कि नरत्व और नारीत्व परस्वर चिपक बैठे।

इसलिए 'अर्धाङ्गे पार्वती दधौ।' ऐसा कहा जाता है। भगवान ने आधा अंग पार्वती को दे दिया, इसका कारण यही है। दार्शनिक दृष्टि से स्त्री पुरुष के गुण जहाँ एकत्र हों, उसे ही पार्वती-परमेश्वर कहते हैं। भगवान सिर्फ कर्त्तव्यवान नहीं, वे कृपालु हैं, दयालु हैं, मायालु हैं, वत्सल हैं और स्नेहीपूर्ण भी हैं। उसी तरह उनमें पौरुष, निर्भयता, विवेक भी है। ये सब मिलकर ही शिवजी होते हैं, उसे ही उमा महेश्वर कहते हैं।

परस्पराश्लिष्टवपुर्धराभ्याम्‌- शिव और पार्वती इन दोनों नेएक-दूसरे को जकड़ रखा है, आलिंगन दिया है। एक ही भगवान का रूप है, लेकिन उसमें नरगुणों और नारी गुणों का मिश्रण हुआ है। उसका अर्धनारी-नटेश्वर के रूप में चित्रण है। पुराण शिव-पार्वती का रतिसंभव अनादिकाल से अनंतकाल तक बताते हैं। उसका सही अर्थ यह है कि स्त्री-पुरुष के गुण परस्पराश्लिष्ट हैं। 

अर्द्धनारी नटेश्वर

'नमः शिवाभ्यां नवयौवनाभ्यां परस्पराश्लिष्टवपुर्धराभ्याम्‌।
नगेन्द्रकन्या वृषकेतनाभ्यां नमोनमः शंकरपार्वतीभ्याम्‌॥' 

'कल्याण करने वाले नवयौवन से युक्त, परस्पर आश्लिष्ट शरीर वाले को नमस्कार! वृषभ का चिह्न जिसके ध्वज पर है, ऐसे शंकर और पर्वत की कन्या पार्वती को बार-बार नमस्कार!'

मानव बुद्धिमान प्राणी है, साथ-साध उसे भावपूर्ण हृदय भी मिला है। इसलिए सृष्टि केवल एक संयोग है ऐसा वह सहजता से नहीं मान सकता। सृष्टि के पीछे कोई निश्चित शक्ति काम करती है, ऐसा सतत्‌ उसे महसूस होता है। उस सृष्टि चालक के स्वरूप और उसके साथ अपने संबंधों के बारे में वह हजारों वर्षों से विचार करता रहा है। शास्त्रों के वाक्य, महापुरुषों के अनुभव और सृष्टि के प्रेरक दृश्य इसकी विचारधारा में सहायक हुए हैं।

निश्चित ही सृष्टि का सर्जन हुआ है, उसका पालन हो रहा है और जिसका सर्जन होता है, उसका विनाश निश्चित है, इस न्याय से सृष्टि का विसर्जन भी होगा, ऐसी उसकी बुद्धि स्पष्ट रूप से कल्पना कर सकती है। इसी कल्पना को सर्जक, पोषक और संहारक ऐसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश को साकार रूप में स्वीकार कर, मानव ने ठोस स्वरूप दिया है।

  प्रेम और कारुण्य को देखकर शास्त्रकारों ने उसकी स्त्री रूप में कल्पना की है। 'त्वमेव माता च पिता त्वमेम' यहाँ माँ भी है और पिता भी है। ऐसे रूप की कल्पना करके शास्त्रकारों ने भगवान शिवजी को अर्धनारी नटेश्वर का रूप दिया है।      



प्रारंभ की इस विशुद्ध कल्पना में मानव की मूर्खता घुसने के कारण ये तीनों देव अलग हैं ऐसा माना जाने लगा। इतना ही नहीं, परन्तु इन तीनों के संबंध बहुत अच्छे नहीं हैं, ऐसा साबित करने का भी तत्‌-तत्‌ देव के उपासकों ने प्रयास किया। वास्तव में ब्रह्मा, विष्णु और महेश एक ही शक्ति को दिए गए अलग-अलग नाम हैं। 

विभिन्न प्रकार के काम करता हुआ कोई व्यक्ति अलग-अलग नाम से पहचाना जाए तो उसे अलग-अलग व्यक्ति मानने की मूर्खता हम नहीं करते। व्यवहार में न चलने वाली यह गलत धारणा धर्म में सहज घुस गई है। वास्तव में सृष्टि के पीछे रही हुई शक्ति एक और अविच्छिन्न है। उसके द्वारा जब अलग-अलग काम होते हैं, तब उसे अलग-अलग नाम देने का शास्त्रकारों का संकेत है।

एक ही चिरंतन शक्ति की शास्त्रकारों ने कभी पुरुष रूप में तो कभी स्त्री रूप में कल्पना की है। वास्तव में वह शक्ति न तो पुरुष है और न ही स्त्री है। उस शक्ति के पौरुष और कर्तव्य की कल्पना करके हमारे ऋषियों ने उसे पुरुष ठहराया है, तो उसमें रहे प्रेम और कारुण्य को देखकर शास्त्रकारों ने उसकी स्त्री रूप में कल्पना की है। 'त्वमेव माता च पिता त्वमेव' यहाँ माँ भी है और पिता भी है। इन दोनों के गुणों का समावेश जिसमें हो ऐसे रूप की कल्पना करके शास्त्रकारों ने भगवान शिवजी को अर्धनारी नटेश्वर का रूप दिया है।

रदोषस्तोत्राष्टकम्‌


सत्यं ब्रवीमि परलोकहितं ब्रव्रीम सारं ब्रवीम्युपनिषद्धृदयं ब्रमीमि।
संसारमुल्बणमसारमवाप्य जन्तोः सारोऽयमीश्वरपदाम्बुरुहस्य सेवा ॥

ये नार्चयन्ति गिरिशं समये प्रदोषे, ये नाचितं शिवमपि प्रणमन्ति चान्ये।
एतत्कथां श्रुतिपुटैर्न पिबन्ति मूढास्ते, जन्मजन्मसु भवन्ति नरा दरिद्राः॥

ये वै प्रदोषसमये परमेश्वरस्य, कुर्वन्त्यनन्यमनसांऽघ्रिसरोजपूजाम्‌ ।
नित्यं प्रवृद्धधनधान्यकलत्रपुत्र सौभाग्यसम्पदधिकास्त इहैव लोके ॥

कैलासशैवभुवने त्रिजगज्जनिनित्रीं गौरीं निवेश्य कनकाचितरत्नपीठे ।
नृत्यं विधातुमभिवांछति शूलपाणौ देवाः प्रदोषसमये नु भजन्ति सर्वे॥

वाग्देवी धृतवल्लकी शतमखो वेणुं दधत्पद्मजस्तालोन्निद्रकरो रमा भगवती गेयप्रयोगान्विता ।
विष्णुः सान्द्रमृदंङवादनपयुर्देवाः समन्तात्स्थिताः, सेवन्ते तमनु प्रदोषसमये देवं मृडानीपातम्‌ ॥

गन्धर्वयक्षपतगोरग-सिद्ध-साध्व-विद्याधराम रवराप्सरसां गणश्च ।
येऽन्ये त्रिलोकनिकलयाः सहभूतवर्गाः प्राप्ते प्रदोष समये हरपार्श्र्वसंस्थाः ॥

अतः प्रदोषे शिव एक एव पूज्योऽथ नान्ये हरिपद्मजाद्याः ।
तस्मिन्महेशे विधिनेज्यमाने सर्वे प्रसीदन्ति सुराधिनाथाः ॥

एष ते तनयः पूर्वजन्मनि ब्राह्मणोत्तमः ।
प्रतिग्रहैर्वयो निन्ये न दानाद्यैः सुकर्मभिः ॥

अतो दारिद्र्‌यमापन्नः पुत्रस्ते द्विजभामिनि ।
तद्दोषपरिहारार्थं शरणां यातु शंकरम्‌ ॥

शिव निरंजनम्‌

जय गंगाधर हर शिव, जय गिरिजाधीश
त्वं मां पालन नित्यं कृपया जगदीश... हर हर महादेव
कैलासे गिरिशिखरे, कल्पद्रुम विपिने शिव कल्पद्रु विपिने
गुंजति मधुकर पूंजे कुंजवने गहने...हर हर महादेव
कोकिल कूजति खेलति, हंसावन ललिता-शिव...
रचयति कला कलापं नृत्यति संहिता... हर हर महादेव
तस्मिन्ललित सुदेशे शाखा मणि रचिता-शिव...
तन्मध्ये हर निकटे गौरी मुद सहिता... हर हर महादेव
क्रीडां रचयति भूषा रंजित निजमीशम्‌-शिव...
ब्रह्मादिक सुरसेवित प्रणमतिते शीर्षम... हर हर महादेव
विबुधवधू बहुनृत्यति हृदये सुदसहिता-शिव...
किन्नरगानं कुरुते सप्तस्वर सहित... हर हर महादेव
धिनकत थैथै धिनकत मृदंग वाद्यते-शिव...
कण कण ललित सुवेणु मधुरं नादयते... हर हर महादेव
रूणु रूणु चरणे रचयति नुपूर मुज्वलिता-शिव...
चक्रावर्ते भ्रमयति कुरुते तां धिक्‌ताम्‌... हर हर महादेव
तां तां लुपचुप तालं मधुरं नादयते-शिव...
अंगुष्ठांगुली नादं लास्यकतां कुरुते... हर हर महादेव
कर्पूर धौति गौरं पंचानन सहितम्‌-शिव...
त्रिनयन शशिधर मौले विषधर कण्ठयुतम्‌... हर हर महादेव
सुंदर जटा कलापं पावकयुत भालम्‌-शिव...
त्रिशूल डमरू पिनाकं करघृत नृकपालम्‌... हर हर महादेव
शंख निनादं कृत्वाझल्लरी नादयते-शिव...
नीराजयते ब्रह्मा वेद ऋचां पठते... हर हर महादेव
इति मृदुचरण सरोजे ह्रदिकमले घृत्वा-शिव...
अवलोकयति महेशम्‌ ईशम्‌ अभिनत्वा... हर हर महादेव
रुंड-रचित उर माला पन्नगमुपवतीतम्‌-शिव...
वाम विभागे रूपम्‌ अति ललितम्‌... हर हर महादेव
सकल शरीरे मनसिज कृतभस्या भरणम्‌-शिव...
इति वृषभध्वजरूपं तापत्रय हरणम्‌... हर हर महादेव
ध्यानम्‌ आरति समये हृदये इति कृत्वा-शिव...
रामं त्रिजटार्नां ईशम्‌ अभिनत्वा... हर हर महादेव
प्रतिदिनमेवं पठनं संगीतं कुरुते-शिव...
शिव सायुज्यं गच्छति भक्त्याः श्रृणोति... हर हर महादेव 

जय शिव ओंकारा ॐ जय शिव ओंकारा ।


जय शिव ओंकारा ॐ जय शिव ओंकारा ।
ब्रह्मा विष्णु सदा शिव अर्द्धांगी धारा ॥ ॐ जय शिव...॥

एकानन चतुरानन पंचानन राजे ।
हंसानन गरुड़ासन वृषवाहन साजे ॥ ॐ जय शिव...॥

दो भुज चार चतुर्भुज दस भुज अति सोहे।
त्रिगुण रूपनिरखता त्रिभुवन जन मोहे ॥ ॐ जय शिव...॥

अक्षमाला बनमाला रुण्डमाला धारी ।
चंदन मृगमद सोहै भाले शशिधारी ॥ ॐ जय शिव...॥

श्वेताम्बर पीताम्बर बाघम्बर अंगे ।
सनकादिक गरुणादिक भूतादिक संगे ॥ ॐ जय शिव...॥

कर के मध्य कमंडलु चक्र त्रिशूल धर्ता ।
जगकर्ता जगभर्ता जगसंहारकर्ता ॥ ॐ जय शिव...॥

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका ।
प्रणवाक्षर मध्ये ये तीनों एका ॥ ॐ जय शिव...॥

काशी में विश्वनाथ विराजत नन्दी ब्रह्मचारी ।
नित उठि भोग लगावत महिमा अति भारी ॥ ॐ जय शिव...॥

त्रिगुण शिवजीकी आरती जो कोई नर गावे ।
कहत शिवानन्द स्वामी मनवांछित फल पावे ॥ ॐ जय शिव...॥

श्री शिवजी की आरती

कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारं |
सदा वसन्तं ह्रदयाविन्दे भंव भवानी सहितं नमामि ॥
जय शिव ओंकारा हर ॐ शिव ओंकारा |
ब्रम्हा विष्णु सदाशिव अद्धांगी धारा ॥
ॐ जय शिव ओंकारा......
एकानन चतुरानन पंचांनन राजे |
हंसासंन ,गरुड़ासन ,वृषवाहन साजे॥
ॐ जय शिव ओंकारा......
दो भुज चारु चतुर्भज दस भुज अति सोहें |
तीनों रुप निरखता त्रिभुवन जन मोहें॥
ॐ जय शिव ओंकारा......
अक्षमाला ,बनमाला ,रुण्ड़मालाधारी |
चंदन , मृदमग सोहें, भाले शशिधारी ॥
ॐ जय शिव ओंकारा......
श्वेताम्बर,पीताम्बर, बाघाम्बर अंगें |
सनकादिक, ब्रम्हादिक ,भूतादिक संगें
ॐ जय शिव ओंकारा......
कर के मध्य कमड़ंल चक्र ,त्रिशूल धरता |
जगकर्ता, जगभर्ता, जगसंहारकर्ता ॥
ॐ जय शिव ओंकारा......
ब्रम्हा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका |
प्रवणाक्षर मध्यें ये तीनों एका ॥
ॐ जय शिव ओंकारा......
काशी में विश्वनाथ विराजत नन्दी ब्रम्हचारी |
नित उठी भोग लगावत महिमा अति भारी ॥
ॐ जय शिव ओंकारा......
त्रिगुण शिवजी की आरती जो कोई नर गावें |
कहत शिवानंद स्वामी मनवांछित फल पावें ॥
ॐ जय शिव ओंकारा.....
जय शिव ओंकारा हर ॐ शिव ओंकारा|
ब्रम्हा विष्णु सदाशिव अद्धांगी धारा॥
ॐ जय शिव ओंकारा......

Shiv naam se hain jagat mein ujala

Shiv naam se hain jagat mein ujala
hari bhakto ke hain mann mein shivala
 
hey shambhu baba mere bhole naath
teeno lok mein tu hi tu
shradhha suman mera mann deh patri
jeevan bhi apram kar du
hey shambhu baba mere bhole naath
teeno lok mein tu hi tu
shradhha suman mera mann deh patri
jeevan bhi apram kar du
hey shambhu baba mere bhole naath
teeno lok mein tu hi tu
 
jag ka swaami hai tu antaryaami hai tu
mere jeevan ki anmeet kahani hai tu
teri shakti apaar tera paavan hai dwaar
teri pooja hi mera jeevan aadhaaar
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dhool tere charnon ki lekar
jeevan ko saakaar kiya
hey shambhu baba mere bhole naath
teeno lok mein tu hi tu
 
mann mein hai kaamana kuchh main aur jaanu na
zindagi bhar karu teri aradhana
sukh ki pehchhaan de tu mujhe gyaan de
prem sabse karu aaisa vardaan ne
tune diya bal nirbal ko
agyaani ko gyaan diya
hey shambhu baba mere bhole naath
teeno lok mein tu hi tu
shradhha suman mera deh mann patri
jeevan bhi apram kar du
 
hey shambhu baba mere bhole naath
teeno lok mein tu hi tu 

Amba Sarita Shambha Shivaaya

Amba Sarita Shambha Shivaaya 
Hara Hara Hara Hara Mahaadevaaya 
Hara Hara Hara Hara Mahaadevaaya Shambho 
Parvathi Ramana Sada Shivaaya 
Hara Hara Hara Hara Mahaadevaaya 
Hara Hara Hara Hara Mahaadevaaya Shambho 
Parvathi Ramana Sadaa Shivaaya 

ॐ जय शिव औंकारा, स्वामी हर शिव औंकारा ।


ॐ जय शिव औंकारा, स्वामी हर शिव औंकारा ।

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव अर्धांगी धारा ॥

जय शिव औंकारा ॥

एकानन चतुरानन पंचानन राजेस्वामी पंचानन राजे ।

हंसासन गरुड़ासन वृष वाहन साजे ॥

जय शिव औंकारा ॥

दो भुज चारु चतुर्भुज दस भुज से सोहेस्वामी दस भुज से सोहे ।

तीनों रूप निरखते त्रिभुवन जन मोहे ॥

जय शिव औंकारा ॥

अक्षमाला वनमाला मुण्डमाला धारीस्वामि मुण्डमाला धारी ।

चंदन मृग मद सोहे भाले शशि धारी ॥

जय शिव औंकारा ॥

श्वेताम्बर पीताम्बर बाघाम्बर अंगेस्वामी बाघाम्बर अंगे ।

सनकादिक ब्रह्मादिक भूतादिक संगे ॥

जय शिव औंकारा ॥

कर में श्रेष्ठ कमण्डलु चक्र त्रिशूल धरतास्वामी चक्र त्रिशूल धरता ।

जगकर्ता जगहर्ता जग पालन कर्ता ॥

जय शिव औंकारा ॥

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेकास्वामि जानत अविवेका ।

प्रणवाक्षर में शोभित यह तीनों एका ।

जय शिव औंकारा ॥

निर्गुण शिव की आरती जो कोई नर गावेस्वामि जो कोई नर गावे ।

कहत शिवानंद स्वामी मन वाँछित फल पावे ।

जय शिव औंकारा ॥