Wednesday 2 April 2014

नटेश्वर


कालिदास ने भी रघुवंश में लिखा है- 'जगतः पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ'। यहाँ पितरौ शब्द की व्याख्या में माता भी छिपी हुई है। 'माता च पिता च पितरौ'। स्त्रीत्व के गुण और पुरुत्व के गुण एक मानव में एकत्र होते हैं, वहीं मानव ज्ञान का परमोच्च रूप है। केवल नारी के गुण मुक्ति के लिए उपयोगी नहीं हैं। मुक्ति पाने के लिए नर और नारी के गुण इकट्ठे आने चाहिए। इसलिए द्वैत निर्माण होते ही भगवान में नारनारी दोनों के गुण एकत्र हुए। उमा-महेश्वर में पौरुष, कर्तव्य, ज्ञान और विवेक जैसे नर के गुण हैं, उसके साथ-साथ स्नेह, प्रेम, वात्सल्य जैसे नारी के गुण भी हैं, इसलिए वह पूर्ण जीवन है।

भगवान को द्विलिंगी प्रजा उत्पन्न करने का कोई कारण नहीं था। भगवान एकलिंगी प्रजा उत्पन्न कर सकते थे। प्राणिशास्त्र का अभ्यास करने से मालूम होगा कि बहुत-सी प्रजा एकलिंगी है, परन्तु भगवान की द्विलिंगी प्रजा विकसित है, इसलिए बाप भी चाहिए और माँ भी चाहिए। बालक को बाप के गुण मिलने चाहिए और माँ के गुण भी मिलने चाहिए, तभी वह विकसित जीव कहा जाता है। 

स्त्री को पुरुष और पुरुष को स्त्री बनना चाहिए, अर्थात्‌ पुरुष में स्त्री के और स्त्री में पुरुष के गुण आने चाहिए। इस तरह मिलकरही विकास होता है। हस्त्री के गुण पुरुष ले और पुरुष के गुण स्त्री ले, यही विकास है। इसीलिए हमें जन्म देने के लिए माँ और बाप दोनों की जरूरत पड़ी। स्त्री-पुरुष विवाह करने पर ही पूर्ण होते हैं, ऐसा हम कहते हैं।

पुरुष के विवेक, कर्त्तव्य, पौरुष, निर्भयता, ज्ञान- ये सभी गुण स्त्री में आने चाहिए और स्त्री के लज्जा, स्नेह, प्रेम, दया, माया, ममता, इत्यादि गुण पुरुष में आने चाहिए। स्त्री-पुरुष के गुणों के मिलने से ही उत्कृष्ट मानव का का सर्जन होता है। जब भगवान ने सृष्टि निर्माण की तब, भगवान के पास नर और नारी के गुण एक साथ थे। इसका अर्थ यही है कि नरत्व और नारीत्व परस्वर चिपक बैठे।

इसलिए 'अर्धाङ्गे पार्वती दधौ।' ऐसा कहा जाता है। भगवान ने आधा अंग पार्वती को दे दिया, इसका कारण यही है। दार्शनिक दृष्टि से स्त्री पुरुष के गुण जहाँ एकत्र हों, उसे ही पार्वती-परमेश्वर कहते हैं। भगवान सिर्फ कर्त्तव्यवान नहीं, वे कृपालु हैं, दयालु हैं, मायालु हैं, वत्सल हैं और स्नेहीपूर्ण भी हैं। उसी तरह उनमें पौरुष, निर्भयता, विवेक भी है। ये सब मिलकर ही शिवजी होते हैं, उसे ही उमा महेश्वर कहते हैं।

परस्पराश्लिष्टवपुर्धराभ्याम्‌- शिव और पार्वती इन दोनों नेएक-दूसरे को जकड़ रखा है, आलिंगन दिया है। एक ही भगवान का रूप है, लेकिन उसमें नरगुणों और नारी गुणों का मिश्रण हुआ है। उसका अर्धनारी-नटेश्वर के रूप में चित्रण है। पुराण शिव-पार्वती का रतिसंभव अनादिकाल से अनंतकाल तक बताते हैं। उसका सही अर्थ यह है कि स्त्री-पुरुष के गुण परस्पराश्लिष्ट हैं। 

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